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बचपन में मां, युवावस्था में महात्मा व वृद्ध होने पर परमात्मा संभालते हैं: विहर्ष सागर

ग्वालियर। सौ शिक्षक भलें ही एक बधो को कितना भी पढ़ा लें। लेकिन मां की अपनी एक अलग भूमिका होती है। मां शब्द में अपनत्व झलकता है। बधो को बचपन में मां, युवावस्था में महात्मा और वृद्ध होने पर परमात्मा संभालते हैं। परमात्मा के चरणों में ही अपना जीवन है। यह विचार जैन राष्ट्रीय संत मुनिश्री विहर्ष सागर महाराज ने दीनदयाल नगर स्थित दिगंबर जैन मंदिर में आगवनी के दौरान व्यक्त किए।


मुनिश्री ने कहा कि जन्म देने वाली मां में बधो को संस्कारवान बनाकर उसे योग्य बनाने की क्षमता होती है। इसकी तुलना 100 शिक्षकों के बराबर की गई है। अगर हम 100 शिक्षकों को लगा दें तो भी ऐसे कार्य को पूरा नहीं कर सकते हैं। एक मां अपने बधाों को सर्वगुण संपन्ना करने की कोशिश करती है। मुनिश्री ने कहा कि साधक हो या भक्त, उसे हंस की तरह जीवन के लक्ष्य को ग्रहण करना चाहिए। यह संसार जन्म मृत्यु, सुख-दुख, पाप पुण्य, मान-अपमान, श्रम शुभ के द्वंद का मूर्त रूप है। जीवन का परम लक्ष्य मोक्ष है। मनुष्य पुरुषार्थ से अर्थ कमा सकता है। लेकिन शांति धर्मपूर्वक अर्थ उपार्जन से मिलेगी।


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