ग्वालियर शहर जिन चंद लोगों की वजह से अपना सा लगता था उनमें से एक थे राजकुमार बंसल.राजकुमार बंसल यानि यारों के यार राजकुमार .हृदयहीन कोरोना ने आज आधी रात को उन्हें भी लील लिया.राजकुमार जिस भाजपा के लिए मरते थे उसी भाजपा की सरकार में उन्हें अंतिम समय में प्राणवायु नहीं मिल पायी और उन्हें बेमन से ये फानी दुनिया छोड़ना पड़ी .सच मानिये राजकुमार बंसल के निधन की खबर मिलते ही ऐसा लगा जैसे एक बाजू कट कर देह से अलग हो गया है .
पांच दशक पहले जब मै ग्वालियर आया था उस समय राजकुमार ही थे जिनसे पहली दोस्ती हुई थी. मेरे घर से कोई पांच सौ कदम दूरी पर तब उनकी मिष्ठान की दूकान थी .इसी मिठाई से जो रिश्ते कायम हुए वे पारिवारिक बन गए और एक जरूरत भी. बंसल जी ने बाद में मिष्ठान भण्डार बंद कर मेडिकल स्टोर खोल लिया .पुस्तैनी कारोबार छोड़कर नए कारोबार में प्रवेश करते हुए राजकुमार जी बड़े उत्साहित थे.धंधे में जोखिम था लेकिन जोखिम लेने से राजकुमार कभी पीछे हटने वाले थे ही नहीं. उन दिनों मै छात्र था .बाद में पत्रकार बन गया .मेरे लिए भी पत्रकारिता जोखिम का क्षेत्र था ,लेकिन हम दोनों अपने-अपने क्षेत्र में चल निकले .हम दोनों ने पीछे मुड़कर देखा ही नहीं कभी .
विचारधारा के लिहाज से हम दोनों विपरीत ध्रुवों पर थे लेकिन हमारे मन की धुरी एक ही थी और वो था प्रेम. राजकुमार जी मुझे अपने अनुजवत मानते थे .उनका सम्पर्क व्यापक था किन्तु इसी व्यापकता में मुझे एक सुरक्षित स्थान प्राप्त था ,जो तीन माह पहले भारत से अमेरिका के लिए प्रस्थान करते समय भी था और पिछले सप्ताह फोन पर बात करते हुए भी .मैंने सपने में भी नहीं सोचा था कि कोरोना मेरे अपने सुरक्षा चक्र पर भी हमला करेगा .राजकुमार जी मेरा सुरक्षा चक्र ही तो थे .सुख हो या दुःख सबसे पहले राजकुमार बंसल का स्मरण होता था और वे आसपास ही खड़े नजर आते थे .
ग्वालियर में सत्तारूढ़ भाजपा की वरिष्ठ पीढ़ी के नेता होते हुए भी उन्होंने कभी कोई बड़ा सपना नहीं देखा और उनके साथ के नेताओं ने उन्हें सपने देखने भी नहीं दिए हालाँकि आज भाजपा में शीर्ष पर बैठे तमाम लोग ऐसे हैं जो उनकी मेडिकल की दूकान पर बैठकर सपने देखा करते थे .राजकुमार जी भाजपा के तपोनिष्ठ नेता स्वर्गीय प्यारेलाल खंडेलवाल के अनुयायी थे .बाद में स्थानीय स्तर पर वे सबके साथ रहे. फिर चाहे वे शीतला सहाय रहे हों या अनूप मिश्रा या केंद्रीय मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर .वे सबके आदरणीय भाईसाहब थे .ग्वालियर में बंसल मेडिकल स्टोर भाजपा वालों का दूसरा जनसम्पर्क कार्यालय जैसा था .पत्रकारों के लिए भी ये एक सूचनाकेन्द्र जैसा था ,क्योंकि बंसल जी सबके थे और सब बंसल जी के .
बीते पचास साल में शायद ही ऐसा कोई अवसर आया हो जब बंसल जी सुधियों से बाहर निकले हों .युवावस्था की मित्रता प्रौढ़ भी हुई और बुढाने भी लगी थी लेकिन उसमें सरसता बरकार थी .परिवार की छोटी-बड़ी कोई बात कभी उन्होंने मुझसे छिपाई नहीं और किसी और को इसकी भनक तक नहीं लगने दी .राजकुमार जी का भरा-पूरा परिवार है.इसमें पत्नी के अलावा भाई,बहुये,बेटे-बेटी,नाती सब तो हैं लेकिन किसी भी मंगल अवसर पर यदि किसी की सबसे ज्यादा चिंता अगर उन्होंने की तो मेरी,फिर चाहे बेटे की शादी हो ,नाती की वर्षगांठ हो या कोई दूसरा अवसर .
राजकुमार बंसल अर्थात एक संस्कारित व्यक्तित्व .वे अपने पूजनीय पिता स्वर्गीय बाबूलाल बंसल को बहुत चाहते थे. उनकी स्मृति में उन्होंने मध्यभारतीय हिंदी साहित्य सभा के सहयोग से प्रवासी हिंदी सेवी सम्मान भी शुरू किया था .इस कार्यक्रम की रूपरेखा से लेकर उसके समापन तक हर बात का विमर्श करना वे कभी भूले नहीं .उन्होंने अपने संस्कार अपने बेटों और नातियों तक में हस्तांतरित किये आप इनके ठिकाने से बिना जलपान के आ ही नहीं सकते थे. दूकान पर लगा उनका इंटरकॉम दिन भर घर वालों को चाय-पानी के आदेश देने के लिए ही बना था शायद .
उन दिनों में पान-तम्बाखू का आदी था.राजकुमार जी मुझे देखते ही अपने बेटे धीरज से फैरन पान लाने का आदेश देते. उनकी दूकान के बगल में शहर की प्रमुख एसएस कचौड़ी वाले की दूकान से कब नाश्ता आ जाता पता ही नहीं चलता था .उनके अपनत्त्व को शब्द देना कठिन काम है.कई बार तो उनसे नजरें बचाकर निकलना पड़ता था .तीन दशक पहले जब मैंने अपना पुश्तैनी मकान छोड़ा तन से अब तक नयाबाजार में सिर्फ और सिर्फ राजकुमार जी से मिलने के लिए मेरा आना जाना होता था .इसके लिए मैंने बहना बना रखा था अपनी पुरानी बैंक को जिसमें मेरा खाता था. महीने में जितनी बार भी बैंक आता राजकुमार जी से बिना मिले न लौटता .
भाजपा की मौजूदा केंद्र और राज्य सरकारों के तमाम फैसलों से भयंकर नाराजगी के बावजूद उन्होंने सपने में भी पार्टी के खिलाफ न सोचा और न सुना.पार्टी ने उन्हें ले-देकर एक बार स्थानीय निकाय में टिकिट दिया और एक बार मेडिकल से जुडी एक राज्य स्तरीय संस्था में नामजद किया .उन्होंने न कभी पार्टी से कुछ माँगा और न पार्टी ने उन्हें कुछ दिया .भाजपा में राजकुमार बंसल जैसे तपोनिष्ठ कार्यकर्ताओं के साथ शायद ऐसा ही होता है .कुछ पाने के लिए राजकुमार ने कभी अपने आत्मसम्मान से समझौता नहीं किया .इसका खमियाजा उन्होंने भी भुगता और उनके बेटों ने भी लेकिन कभी शिकायत करने नहीं गए .
पिछले हफ्ते जब मैंने उन्हें अपने दुसरे पौत्र के जन्म की सूचना दी तो उनकी खुशी देखने लायक थी .उनकी खुशी हो या गुस्सा उसमें न बनावट थी और न मिलावट .वे शीशे की तरह पारदर्शी थे .जुलाई में उनसे फिर मिलने का वादा था ,लेकिन अब ये वादा इस जन्म में में कभी पूरा नहीं हो पायेगा .मुझे अफ़सोस रहेगा कि वे जब हमेशा के लिए हम सबका हाथ और साथ छोड़कर निकल चुके हैं तब मै उनसे हजारों किलो मीटर की दूरी पर बैठा हूँ मेरी स्मृतियों में उनका पिछले हफ्ते दिखा मुस्कराता चेहरा हमेशा जीवित रहेगा. मेरे लिए वे कभी पार्थिव नहीं होंगे . अब ग्वालियर में होली,दीवाली के वे रंग नहीं होंगे जो राजकुमार जी के रहते हुआ करते थे. हर त्यौहार पर वे सपरिवार दर्शन देने अवश्य आते थे .मेरे लिए वे अग्रज भी थे और संरक्षक भी .उनके प्रति मेरा दिल शृद्धा से हमेशा भरा हुआ रहता था,अब उसमें आंसुओं का खारापन भी शामिल हो गया है .अब जब ग्वालियर वापस लौटूंगा तो एक खालीपन से सामना करना पडेगा .उफ़ !
@ राकेश अचल
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