पूर्व प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गाँधी की पौत्री और राजीव गाँधी की बेटी श्रीमती प्रियंका वाड्रा ने आखिर ना ना करते हुए भी चुनावी राजनीति में कदम रख ही दिया । अब अगले माह उनकी संसद से कुड़माई होगी । दो बच्चों की माँ और परिपक़्व राजनेता बन चुकी प्रियंका वायनाड से लोकसभा उपचुनाव में कांग्रेस प्रत्याशी बनाई गयीं हैं। कांग्रेसजनों के लिए ये खुशखबरी और सत्तारूढ़ दल के लिए ये एक और मुद्दा होगा
हम प्रियंका के संसदीय राजनीति में आने का स्वागत करते हैं। वर्तमान में वे अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी की राष्ट्रीय महासचिव तथा पूर्वी उत्तर प्रदेश की प्रभारी हैं।प्रियंका न राजनीति के लिए नई हैं और न देशवासियों के लिए। उनके पास राजनीति की एक लम्बी विरासत भी है और अनुभव भी। कांग्रेसी ही नहीं अपितु आम भारतीय प्रियंका में स्वर्गीय इंदिरा गांधी का अक्श देखता है। अक्श और वस्तविक्ता में फर्क होता है ,लेकिन हम और आप अपने पूर्वजों के अक्श के अलावा और हैं भी क्या ?प्रियंका को कांग्रेस ने वायनाड की एक ऐसी सीट से चुनाव मैदान में उतारा है जो शायद कांग्रेस के लिए बेहद सुरक्षित और आसान है ,लेकिन बेहतर होता कि वे पांच महीने पहले हुए आम चुनाव के वक्त अमेठी की अपनी अघोषित रूप से पुश्तैनी संसदीय सीट से लड़तीं।
प्रियंका के लिए सक्रिय और संसदीय राजनीति में प्रवेश करना पार्टी की जरूरत है या उनकी अपनी विवशता ? इस विषय पर बहस हो सकती है ,लेकिन इस बात में कोई विवाद नहीं हो सकता कि वे एक धीर-गंभीर राजनेता के रूप में देश और पार्टी के लिए नयी नहीं हैं। उन्होंने चुनाव लड़ने में जानबूझकर देर की ,ये सब जानते है। वे चाहतीं तो 20 साल पहले 2004 में ही संसदीय यात्रा शुरू कर सकतीं थीं ,लेकिन उन्होंने आम भारतीय परिवारों की तरह अपने परिवार की सियासी विरासत सम्हालने के लिए अपने से उम्र में दो साल छोटे भाई राहुल को ही आगे किया। ये प्रियंका का भाई के प्रति स्नेह है या त्याग कहना कठिन है । क्योंकि दोनों के बीच जो रिश्ता है वो सभी आशंकाओं,कुशंकाओं से परे खून का रिश्ता है।
कांग्रेस में प्रियंका को कमान देने की मांग समय -समय पर उठती रही हैं । राहुल गांधी से असहमत और नाउम्मीद कांग्रेसी ये मांग करते रहे हैं ,किन्तु प्रियंका ने कभी इसमें कोई रूचि नहीं दिखा। वे पिछले दो दशक से अपने भाई को राजनीति में प्रतिष्ठित करने के लिए साये की तरह सक्रिय हैं आलोचनाओं की परवाह किये बिना। राहुल गांधी जब भी अकेले पड़े,लड़खड़ाए तो प्रियंका उन्हें सम्हालने में सबसे आगे रहीं। राहुल के ऊपर जितने सियासी हमले हुए ,उन सबके जबाब में प्रियंका ने जबाबी हमले भी किये और ढाल भी बनकर खड़ी दिखाई दीं। उनके और राहुल के बीच एक ही फर्क है कि वे राजनीयति का शालीन चेहरा मानी जाती हैं जबकि राहुल आक्रामक चेहरा।
मुझे वर्ष 1999 में प्रियंका का बीबीसी को दिया वो साक्षात्कार याद है जिसमें उन्होंने कहा था कि -मेरे दिमाग में यह बात बिलकुल स्पष्ट है कि राजनीति शक्तिशाली नहीं है, बल्कि जनता अधिक महत्वपूर्ण है और मैं उनकी सेवा राजनीति से बाहर रहकर भी कर सकती हूँ। तथापि उनके औपचारिक राजनीति में जाने का प्रश्न परेशानीयुक्त लगता है: "मैं यह बात हजारों बार दोहरा चुकी हूँ, कि मैं राजनीति में जाने की इच्छुक नहीं हूँ।'यानि आप कह सकते हैं कि प्रियंका बेमन से राजनीति में आयन थीं लेकिन अब उनका मन राजनीति में रम गया है। प्रियंका किसी रेलवे स्टेशन पर चाय बेचते हुए राजनीति में नहीं आयीं । उनके पिता राजीव गाँधी, माँ श्रीमती सोनिया गाँधी ,दादी श्रीमती इंदिरा गाँधी, दादा फिरोज गाँधी ,और उनसे भी पहले पंडित जवाहर लाल नेहरू देश की राजनीति के महत्वपूर्ण अंग रहे हैं। उनके लिए राजनीति न अपरिचित क्षेत्र है और न जरूरी।
मुझे लगता है कि प्रियंका के लिए राजनीति के जरिये देश सेवा करने का ये उचित समय है । उनके बच्चे भी बड़े हो गए हैं ,वे तमाम पारिवारिक जिम्मेदारियों से भी लगभग फारिग हो चुकीं है। उनके पास अपनी माँ और भाई के चुनाव प्रबंधन का लंबा अनुभव भी है । 2007 के उप्र विधानसभा चुनावों में उन्होंने जमकर मेहनत भी की थी। बहुत से लोग नहीं जानते होंगे कि प्रियंका मनोविज्ञान में स्नातक भी हैं इसलिए वे देश की जनता के मन को भी भलीभांति समझती हैं। संसदीय राजनीयति में उनके प्रवेश से कांग्रेस को लाभ मिलेगा या नुक्सान होगा ये कांग्रेस आकलन कर चुकी है। प्रियंका की मौजूदगी से अब कांग्रेस में एक नए अध्याय का आगाज होग। संसद के भीतर भी और संसद के बाहर सड़क पर भी। जो लोग राहुल से असहमत हैं वे प्रियंका से सहमत हो सकते हैं। उनके साथ खड़े होकर काम कर सकते है। प्रियंका राहुल के लिए चुनौती नहीं बल्कि एक मजबूती साबित होंगी।
पिछले दो दशक में राहुल गांधी प्रधानमंत्री तो नहीं बन पाए लेकिन उन्होंने लोकसभा में विपक्ष के नेता का स्थान तो हासिल कर ही लिया है। संसद में अब वे अकेले नहीं होंगे। उनकी मदद के लिए उनकी बहन भी साथ होंंगी बाशर्त कि वे वायनाड से चुनाव जीतकर आ जाएँ। भाजपा प्रियंका को शायद ही संसद में आने से रोक पाये । भाज पा के लिए संसद में प्रियंका का प्रवेश रोकने से ज्यादा महत्वपुर्ण महाराष्ट्र विधानसभा के चुनाव हैं। झारखण्ड के चुनाव है। इन दो राज्यों को बचाने में उलझी भाजपा शायद ही प्रियंका के सामने कोई चुनौती खड़ी कर पाए। बेहतर तो ये हो कि भाजपा वायनाड से चुनाव लड़े ही न और एक नई नजीर पेश कर नारी शक्ति वंदन की ,लेकिन ऐसा होगा नहीं। भाजपा का दिल इतना बड़ा नहीं है। भाजपा कोशिश करेगी कि प्रियंका को संसद में आने से रोका जाये ,क्योंकि प्रियंका का संसद में आना उसके लिए समस्याएं ही पैदा करने वाला होगा।
आपको याद होगा कि प्रियंका गांधी ने 1999 में राजनीति में प्रवेश किया था , जब वो अपनी मां सोनिया गांधी के लिए चुनाव प्रचार करने उतरी थीं। इस दौरान उन्होंने पहली बार राजनीतिक मंच से भाजपा उम्मीदवार अरुण नेहरू के खिलाफ प्रचार था। प्रियंका और प्रियंका जैसे और भी युवा यदि राजनीति में अपनी जगह बनाते हैं तो मुमकिन है कि राजनीति का चेहरा-मोहरा कुछ बदले । राजनीति अदावत के विष से मुक्त हो।
@ राकेश अचल
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