बार बार सोचता हूँ कि अब कभी भी अतीत की स्मृतियों को नहीं कुरेदूँगा ,लेकिन हर बार ये संकल्प धरा का धरा रह जाता है। इस बार आधी सदी पुराने पड़ौसी श्रीप्रभात आर्य रुलाकर चले गए। कोई 73 साल के प्रभात जी से परिचय की आधी सदी हो चुकी है । मैंने उन्हें शुरू से एक शांत और गहरी झील की तरह देखा। वे अध्यापन के अध्यवसाय से जुड़े थे और प्रधानाचार्य के पद से सेवा निवृत्त हुए थे। उनकी सहधर्मिणी श्रीमती काडमबरी आर्य भी शिक्षक ही हैं ।
बात उन दिनों की है जब मै कम्पू में रहता था । प्रभात जी मेरे घर के पीछे महाडिक की गोठ में तंग गलियों में बने एक पुराने मकान में रहते थे। यानि वो साल 1975 का रहा होगा। मै नवोदित साहित्यसेवी था और वे शिक्षक के साथ ही अंशकालिक साहित्यिक पत्रकार। प्रभात जी आर्य थे या अनार्य ये जानने की कोशिश मैंने कभी नहीं की,क्योंकि मुझे ये जानने की जरूरत ही नहीं पड़ी। वे सदैव अपने चेहरे से एक स्निग्ध मुस्कान चस्पा कर अपने घर से निकलते थे। उनकी ये मुस्कान आजीवन उनके साथ रही।
प्रभात जी संघ की पृष्ठभूमि से आते थे ,इसलिए उन्होंने दैनिक स्वदेश को अपनी सेवाएं देना पसंद किया । सरकारी नौकरी में होते हुए भी वे अंशकालिक पत्रकार थे,साहित्यिक पत्रकार। उनकी धर्मपत्नी भी साहित्यकार थीं सो यदा-कदा गोष्ठियों में मिलना होता ही था और पड़ौसी होने की वजह से हम लोग अक्सर मिलते-जुलते रहते थे । कभी किसी सब्जी वाले के यहां तो कभी किसी किराने की दूकान पर। प्रभात जी सदैव मुझे संघीय संस्कारों की वजह से अचल जी कहते थे जबकि मै उनसे छोटा था। उनका बड़प्पन ही सामने वाले को उनके सामने बौना बना देता था।
प्रभात जी की सक्रियता उनकी धर्मपत्नी की सक्रियता से एकदम अलग थी । आदरणीय कादंबरी जी जितनी बेलौस और मुंहफट हैं, प्रभात जी इसके ठीक विपरीत मितभाषी और संकोची स्वभाव के थे । कम से कम नैने तो उन्हें कभी गुस्से में नहीं देखा। न घर में और न दफ्तर में। उनके स्वदेश में रहते हुए मेरी कविताएं खूब छपी। वे साहित्य के सधे हुए सम्पादक थे । उस समय स्वदेश के सम्पादक श्री राजेंद्र शर्मा हुआ करते थे। जयकिशन शर्मा थे, महेश खरे थे ,प्रशिक्षु के रूप में हरिमोहन शर्मा जैसे अनेक युवा थे । तब प्रभात झा का उदय नहीं हुआ था । लेकिन प्रभात आर्य जी की न किसी से पर्तिस्पर्धा थी और न किसी से अदावत। आप कह सकते हैं कि वे अजातशत्रु थे। वे समय पर स्कूल जाते थे तो समय पार ही स्वदेश में। वे चाहते तो स्वदेश उन्हें सम्पादक भी बना सकता था किंतु वे अपनी सरकारी नौकरी से खुश थे । उन्होंने कभी कोई बड़ी महत्वाकांक्षा नहीं पाली। जबकि उनके साथ कि महेश खरे स्वदेश में अपनी उपेक्षा से परेशान होकर स्वदेश छोड़ गए थे। प्रभात जी हमेशा स्वदेश में रहे।
सन1990 के आसपास मै कम्पू से निकलकर थाटीपुर आ गया और प्रभात जी ने भी अपना नया घरोंदा बना लिया। लेकिन समय-समय पर हमारा मिलना जुलना जारी रहा । पिछले अनेक वर्षों से वे ज्यादा सक्रिय नहीं थे ,किन्तु संघ के सभी महत्वपूर्ण कार्यक्रमों में वे पार्श्व में मौजूद दिखाई देते थे। औसत कद-काठी के मालिक प्रभात जी का ललाट उन्नत था। पिछले कुछ दिनों से उनका स्वास्थ्य गड़बड़ था । दिल ने हरकत की तो उन्होंने उसकी मरम्मत भी कराई लेकिन उन्हें कोई और धोखा नहीं दे पाया सिवाय दिल के । वे दिल के धोखे का ही शिकार हुए ,और जैरे इलाज चलते बने।
प्रभात जी के जाने से उनके चाहने वाले दुखी होंगे ही। परिवार के लिए उनका जाना किसी वज्रपात से कम नहीं है ,लेकिन उन्होंने अपने लिए कोई ऐसा स्थान नहीं बनाया जिसको पूरा करने की बात कही जा सके। उनका जाना हम मित्रों की निजी क्षति है । राष्ट्रवादी विचारों वाले परिवार की क्षति है। वे जिस तरह एक ठहरी झील की तरह जिए उसी तरह शांति से अनंत यात्रा पर निकल भी गए। चुपचाप। बिना किसी से कुछ कहे-सुने। प्रभात जी ने सोशल मीडिया पर अपने चार-पांच खाते खोल रखे थे लेकिन उनकी सक्रियता बड़ी सीमित थी । वे न अपने आप से असहमत लोगों से कभी उलझे और न सहमत लोगों के सामने कभी बिछे। उन्होंने सहमति और असहमति के बीच हमेशा एक संतुलन बना कर रखा। वे हमारी मित्र मण्डली के विदा लेने वाले एक और आर्य हो गए हैं। उनसे पहले श्री ओमप्रकाश आर्य गए। दिवाकर विद्यालंकार जी गए। प्रभात जी हमारी स्मृतियों में लम्बे समय तक मौजूद रहने वाले है। विनम्र श्रृद्धांजलि।
@ राकेश अचल
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