संविधान ,संसद और हमारी सरकार


विषय गंभीर  है ,इसलिए इसे गंभीरता से ही पढ़िए। देश के संविधान के 74  साल पूरे हो गए हैं और 75 वां साल शुरू हो गया है। इसी दीर्घायु संविधान से आज की सरकार धर्मनिरपेक्षता को निकाल फेंकना चाहती है ,लेकिन लाख-लाख शुक्रिया कि सरकार की बदनीयत पर देश की सबसे बड़ी अदालत ने पानी फेर दिया। इसी संविधान की शपथ लेकर  संसद में  जाने  वाले  लोग  दूसरी तरफ संसद को बहरा और गूंगा बनाने पर आमादा हैं। अब सवाल ये है कि हमारा संविधान और संसद क्या किसी सनक का शिकार हो सकता है ?

देश के संविधान की प्रस्तावना में पिछली सरकार द्वारा जोड़े गए दो शब्द आज की सरकार और उसके समर्थकों की आँख में कांटे की तरह चुभ रहे है।  इन्हें  विलोपित करने के लिए फिलहाल संसद में प्रस्ताव नहीं आया है लेकिन कुछ लोग सर्वोच्च न्यायालय जा पहुंचे।सुप्रीम कोर्ट ने  संविधान की प्रस्तावना में 'समाजवादी' और 'पंथनिरपेक्ष' शब्दों को हटाने की मांग वाली याचिकाओं को खारिज कर दिया। अदालत ने कहा कि प्रस्तावना के मूल सिद्धांत पंथनिरपेक्ष लोकाचार को दर्शाते हैं। केशवानंद भारती और एसआर बोम्मई सहित कई फैसलों में कहा गया है कि पंथनिरपेक्षता संविधान की एक बुनियादी विशेषता है।

इन दो शब्दों को लेकर आज की सरकार और संविधान के बीच का टकराव साफ़ देखा जा सकता है।  हाल ही में सम्पन्न हुए महाराष्ट्र और झारखंड विधानसभा के चुनावों में संविधान की मूल भावना के खिलाफ ' सरकार और सरकारी पार्टी ने ' बटोगे तो कटोगे ' का बीभत्स नारा उछाला। लेकिन किसी ने सरकार को रोका नहीं। आखिर किसके पास इतनी ताकत है कि जो वो सरकार को संविधान के खिलाफ जाने से रोके ? ये काम  या तो देश की सबसे बड़ी अदालत कर सकती है या फिर जनता की अदालत। जनता की अदालत संसद होती है उसे गूंगा-बहरा बनाने की कोशिश की जा रही है। संसद के शीत सत्र के पहले ही दिन लोकसभा की कार्रवाई केवल 1  मिनिट चली और तत्काल स्थगित कर दी गयी । लोकसभा अध्यक्ष ने सदन चलने की कोई कोशिश नहीं की ।  लगता है जैसे वे घर से ही सोचकर निकले थे कि संसद की कार्रवाई को चलाना ही नहीं है।

प्रधानमंत्री माननीय नरेंद्र दामोदर दास मोदी  ने संसद में प्रवेश से पहले ही कह दिया कि जिन लोगों को जनता ने ठुकरा दिया है वे मुठ्ठी भर लोग संसद में हंगामा करते है।  अब कोई मोदी जी से कैसे पूछे कि सदन में जनता द्वारा चुने हुए लोग ही प्रवेश करते हैं ठुकराए हुए नहीं। और ये लोग मुठ्ठी भर नहीं हैं सैकड़ों की संख्या में हैं। इन्हें इस तरह से लांछित नहीं किया जा सकता। मुश्किल ये है कि माननीय प्रधानमंत्री न संसद के बाहर सवालों का सामना करते हैं और न संसद में।  उनकी अग्निवीर सेना संसद में संविधान के बजाय ' मोदी-' मोदी ' के नारे लगाकर आतंक पैदा करना चाहती है। आखिर मोदी जी महाराष्ट्र में जीते  हैं तो झारखण्ड  में बुरी  तरह हारे  भी  हैं। फिर इस नारेबाजी का क्या अर्थ है ?इससे क्या हासिल होने वाला है ?

हमारी मौजूदा बैशाखी पर टिकी सरकार को शायद ये भरम हो गया है कि हमारा संविधान उनके मतलब का नहीं है ,क्योंकि जब संविधान बनाया गया तब माननीय मोदी जी थे ही नहीं। आपको बता दें कि भारतीय संविधान की 'प्रस्तावना' एक संक्षिप्त परिचयात्मक कथन है। प्रस्तावना किसी दस्तावेज के दर्शन और उद्देश्यों को बताती है। इसे 26 नवंबर 1949 को भारतीय संविधान सभा द्वारा अपनाया गया था। इसके बाद 26 जनवरी 1950 को देश का संविधान लागू हुआ था। दरअसल, 1946 में जवाहरलाल नेहरू ने संवैधानिक ढांचे का वर्णन करते हुए उद्देश्य प्रस्ताव पेश किया था। 1947 (22 जनवरी) में इसे अपनाया गया। इसने भारत के संविधान को आकार दिया और इसका संशोधित रूप भारतीय संविधान की प्रस्तावना में परिलक्षित होता है।

भारतीय संविधान की प्रस्तावना में केवल एक बार 42वें संशोधन अधिनियम, 1976 के जरिए संशोधन किया गया है। 'समाजवादी', 'पंथनिरपेक्ष' और 'अखंडता' शब्द 42वें संशोधन अधिनियम, 1976 के जरिए प्रस्तावना में जोड़े गए। 'संप्रभु' और 'लोकतांत्रिक' के बीच 'समाजवादी' और 'पंथनिरपेक्ष' शब्द जोड़ दिए गए। 'राष्ट्र की एकता' को बदलकर 'राष्ट्र की एकता और अखंडता' कर दिया गया।ये शब्द भाजपा को अजीर्ण पैदा करते हैं। इसीलिए भाजपा न जाने कब से संविधना से इन शब्दों को हटाने की फ़िराक में हैं ,लेकिन कहते हैं की ऊपर वाला बड़ा दयालु है ।  गंजों को नाखून नहीं देता। संविधान में संशोधन के लिए जितनी ताकत [ संख्या बल ] चाहिए उतना भाजपा अभी तक जुटा नहीं पायी। हारकर उसने अदालत की शरण ली।

शीर्ष अदालत में भाजपा नेता डॉ. सुब्रमण्यम स्वामी, सुप्रीम कोर्ट के वकील अश्विनी उपाध्याय और बलराम सिंह ने इसे लेकर याचिकाएं दाखिल की थीं। याचिकाओं में 1976 में 42वें संशोधन के जरिये संविधान की प्रस्तावना में शामिल किए गए दो शब्दों पंथनिरपेक्ष और सामाजवाद को हटाने की मांग की गई। याचिकाओं में कहा गया कि ये दोनों शब्द 1949 में तैयार किए गए संविधान के मूल प्रस्तावना में नहीं हैं। मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति संजीव खन्ना और जस्टिस संजय कुमार की पीठ ने इन याचिकाओं पर सुनवाई की और  22 नवंबर को आदेश सुरक्षित रखा था।अब शीर्ष अदालत  में भी भाजपा  का सपना  चकनाचूर  हो चुका  है।  इसकी  खीज  आप  संसद में साफ़ देख  सकते  हैं। सरकार ने मन  बना  लिया  है की उसे संसद में हंगामे  को बहना  बनाकर  किसी भी सवाल का उत्तर  देना  ही नहीं है।

देश का दुर्भाग्य  ये है कि देश के पास इस समय एक कजहिजी हुई,बौखलाई हुई,मन से हारी  हुई एक ऐसी सरकार है जो विपक्ष  को फूटी आँख नहीं देखना  चाहती आपको याद   होगा  कि इसी पार्टी की सरकार ने पिछली संसद में किस  तरह से थोक  में सांसदों  को सदन से बाहर का रास्ता  दिखाकर अपनी  मनमानी की थी। इस बार भी मुझे यही आशंका है कि सरकार सदन चलाना ही नहीं चाहती ।  सरकार के तेवर बता रहे हैं कि  उसे किसी की परवाह नहीं है।  न सदन की गरिमा की ,न सदन  के सदस्यों के मान-अपमान की और न जनाकांक्षाओं की।लोकसभा और राज्य  सभा  के हिस्से  में पहली  बार सरकार के कठपुतली  पीठासीन  प्रमुख  आये  हैं ,जो सदन को नियमों  ,और परम्पराओं  के अनुरूप  चलने के बजाय सरकार के  इशारों  से चलना  चाहते  हैं। आप कल्पना  कर सकते हैं कि जो सरकार संविधान की लाल  जिल्द देखकर बिदकती हो वो संविधान और संसद की गरिमा की रक्षा क्या ख़ाक करेगी ?

बहरहाल संविधान की हीरक जयंती पर आप सभी  को शुभकामनाएं।  अब संविधान को बचाने का दायित्व   सांसदों   के साथ  ही जनता के ऊपर भी है ।  जनता यदि  घरों  में टीवी  सेट्स  से चिपके  रहकर  सामविधान और संसद की रकक्षा  करना चाहेगी  तो उसे कुछ भी हासिल नहीं होगा ।

@ राकेश अचल

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