रविवार, 23 मार्च 2025

जस्टिस के खिलाफ जस्टिस आखिर कौन देगा ?

 

ऊँट पहाड़ के नीचे जब कभी आता है ,और जब आता है तब उसे पता लगता है के दुनिया में उसका कद आखिर कितना छोटा है। जस्टिस यशवंत वर्मा के मामले में यही सब हो रहा है। जस्टिस वर्मा के घर में हुए अग्निकांड के बाद मौके पर मिले रुपयों का ढेर भी मिला था।    सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस संजीव खन्ना ने जस्टिस यशवंत वर्मा के खिलाफ जांच के लिए तीन सदस्यीय कमेटी बनाई है। वर्मा के सरकारी आवास से कथित नकदी बरामद होने के बाद उन पर भ्रष्टाचार के आरोप लगे हैं। जांच के दौरान वर्मा न्यायिक कार्य नहीं कर पाएंगे।सीजेआई संजीव खन्ना ने जिन तीन सदस्यों की कमेटी बनाई है उसमें जस्टिस शील नागू, जस्टिस जी.एस. संधावालिया और जस्टिस अनु शिवरामन शामिल हैं। सीजेआई खन्ना ने कहा कि जांच निष्पक्ष होनी चाहिए।

आपको बता दूँ की दिल्ली हाई कोर्ट के चीफ जस्टिस डी. के. उपाध्याय ने जस्टिस यशवंत वर्मा के सरकारी आवास से कथित तौर पर कैश मिलने के मामले में एक रिपोर्ट पहले ही भारत के चीफ जस्टिस संजीव खन्ना को सौंप दी गयी  है। बताया जा रहा है कि जस्टिस उपाध्याय ने घटना के संबंध में सबूत और सूचनाएं जुटाने के लिए इन-हाउस जांच प्रक्रिया शुरू की थी और शुक्रवार को ही रिपोर्ट पेश कर दी है। अब सुप्रीम कोर्ट का कलीजियम इस रिपोर्ट की पड़ताल करेगा और फिर कोई कार्रवाई कर सकता है।

जस्टिस वर्मा भले आदमी है न और व्यावहारिक भी। वे न दूध के धुले हैं और न महाकुम्भ में उन्होंने कोई डुबकी  लगाईं है। नोटों से उनका प्रेम पुराना है। एके  रिपोर्ट के मुताबिक, 2018 में यूपी की सिम्भावली शुगर मिल में गड़बड़ी के मामले में जस्टिस यशवंत वर्मा के खिलाफ सीबीआई  ने प्रथिमिकी दर्ज की थी। जस्टिस वर्मा 2014 में इलाहाबाद हाई कोर्ट में जस्टिस बनाए जाने से पहले इस शुगर कंपनी में नॉन-इग्जेक्युटिव डायरेक्टर थे।

जस्टिस यशवंत वर्मा  ५६ इंच के सीने वाले जस्टिस हैं उन्होंने  अपने सरकारी आवास पर नोट बरामदगी विवाद में लगे आरोपों को बेबुनियाद बताया है।  भारतीय न्यायपालिका में भ्र्ष्टाचार के बारे में कोई आधिकारिक जानकारी कम से कम गूगल के पास तो नहीं है लेकिन गरोक गुरु बताते हैं कीन्यायपालिका में भ्रष्टाचार के कई रूप देखे जा सकते हैं, जैसे रिश्वतखोरी, पक्षपात, राजनीतिक दबाव और पारदर्शिता की कमी। निचली अदालतों से लेकर उच्च स्तर तक, कुछ मामलों में जजों और अदालती कर्मचारियों पर अनुचित प्रभाव डालने या लाभ लेने के आरोप लगे हैं। उदाहरण के लिए, 2011 में सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज मार्कंडेय काटजू ने न्यायिक भ्रष्टाचार की ओर इशारा किया था, और 2012 में "कैश-फॉर-बेल" घोटाले ने सुर्खियां बटोरी थीं, जिसमें जमानत के लिए पैसे लेने के आरोप लगे थे। इसके अलावा, लंबित मामलों की भारी संख्या (मार्च 2025 तक 4.7 करोड़ से अधिक) और न्यायिक नियुक्तियों में देरी भी भ्रष्टाचार के अवसर पैदा करते हैं, क्योंकि यह प्रक्रिया को धीमा और अपारदर्शी बनाता है। 

जहाँ तक मुझे याद है की भ्र्ष्टाचार के मामलों में आरोपी जजों के खिलाफ कार्रवाई करने में भारत बहुत ज्यादा गंभीर नहीं है। आपको यद् होगा की 1993  में सुप्रीम कोर्ट के जज जस्टिस वी. रामास्वामी पर वित्तीय अनियमितताओं और कदाचार के आरोप लगे थे। उनके खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव लोकसभा में पेश किया गया, लेकिन यह आवश्यक बहुमत हासिल नहीं कर सका और असफल रहा। यह भारत में पहला मौका था जब किसी जज के खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव वोटिंग तक पहुंचा। हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के जजों के खिलाफ समय-समय पर महाभियोग के लिए प्रस्ताव लाने की कोशिश हुई है, जैसे कि जस्टिस सौमित्र सेन (कलकत्ता हाई कोर्ट) के खिलाफ 2011 में। राज्यसभा में उनके खिलाफ प्रस्ताव पारित हुआ था, लेकिन लोकसभा में वोटिंग से पहले ही उन्होंने इस्तीफा दे दिया। इसी तरह, कुछ अन्य मामलों में जजों ने जांच या महाभियोग की प्रक्रिया आगे बढ़ने से पहले इस्तीफा दे दिया।

मुझे लगता है की जस्टिस वर्मा के मामले में भी कुछ होने वाला नहीं है। न्यायपालिका की बदनामी बचने के लिए जस्टिस वर्मा के खिलाफ जांच का कोई नतीजा जनता के सामने नहीं आएगा। भारत का मीडिया भी जस्टिस वर्मा के खिलाफ कोई नयी खोज नहीं कर पायेग।  कोई राजनितिक दल तो ईद मुद्दे पर कुछ बोलने  वाला है ही नहीं। हमारे यहां जस्टिस के लिए चुने जाने वाले लोग इनजस्टिस भी करें तो उनके खिलाफ कोई भी कार्रवाई आसानी से नहीं होती। जस्टिस साहिबान को कंबल ओढ़कर घी पीने की आजादी अघोषित रूप से दी गयी है ,ठीक उसी तरह जैसे जस्टिस मिश्रा को बलात्कार के मामले में ये कहने की आजादी है की किसी लड़की के स्तन छूना और उसका नाडा खोलना बलात्कार नहीं है। 

@ राकेश अचल

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