शुक्रवार, 7 मार्च 2025

सन्यास लेने से क्यों डरते हैं हमारे नेता ?

 

ऑस्ट्रेलिया के धाकड़ बल्लेबाज स्टीव स्मिथ ने वनडे क्रिकेट से संन्यास लेकर सभी को चौंका दिया। दुनिया के तमाम क्रिकेटर स्मिथ की तरह ही क्रिकेट से एक तय समय के बाद खुद सन्यास लेने का सार्वजनिक ऐलान करते हैं ,लेकिन दुनिया में खासतौर पर  भारत में ऐसे बहुत कम नेता हैं जो स्वेच्छा से राजनीति से सन्यास लेने का ऐलान करते हों। भारतीय परम्परा  में तो सन्यास जीवन  की सर्वोत्कृष्ट अवस्था है। सन्यास की सनातन  परम्परा सामंतकाल में भी थी लेकिन लोकतंत्र में इसका परित्याग कर दिया। अकेली राजनीति ऐसी है जिसमें  आश्रम व्यवस्था लागू नहीं होती । यानि न नेता ब्रम्हचर्य का पालन करता है ,न गृहस्थ रहना चाहता है और न वानप्रस्थ में जाना चाहता है ,सन्यास लेना तो बहुत दूर की बात है। राजनीति में जब कोई सन्यास नहीं लेता तो उसे मार्गदर्शक मंडल में डाल दिया जाता है। 

मैंने जब से होश सम्हाला है तभी से राजनीति में सक्रिय बहुत कम लोगों को राजनीति से सन्यास लेने की घोषणा करते देखा है ,उलटे सन्यास ले चुके लोग राजनीति  में घुसपैठ करते जरूर देखे हैं और इस समय तो राजनीति में सन्यासियों की पौ -बारह है।वे केंद्र में भी मंत्री हैं और मुख्यमंत्री भी।  खिलाडियों में सन्यास लेना आम बात  है लेकिन राजनीति में सन्यास लेना ख़ास घटना मानी जाती है। नेताओं को उनकी अपनी पार्टियां जबरन हाशिये पर डाल देतीं हैं क्योंकि वे खिलाड़ियों की तरह खेल भावना से राजनीयति से सन्यास नहीं  लेते। किसी भी दल में सन्यासी न हों ऐसी बात नहीं है ,लेकिन उनकी संख्या न के बराबर है। नानाजी देशमुख या कामराज या ज्योति बसु जैसे बहुत कम नेता हुए हैं जिन्होंने स्वेच्छा से सन्यास लिया हो । सवाल ये है कि आखिर राजनीति में ऐसा क्या है जो नेता उससे सन्यास नहीं लेना नहीं चाहते ? इस विषय पर न किसी ने शोध किया है और न पीएचडी की उपाधि  हासिल की है ,क्योंकि इस विषय पर शोध करने की न फुरसत है और न इजाजत। मान लीजिये इजाजत मिल भी जाए तो गाइड नहीं मिलेगा। क्योंकि विषय ही अछूत है। 

राजनीति से सन्यास लेने वाले भारत के प्रमुख नेताओं पर यदि आपको निबंध लिखने के लिए कह दिया जाये तो आप मुश्किल से एक-दो पृष्ठ ही लिख पाएंगे,क्योंकि राजनीति से ससम्मान सन्यास लेने वाले हैं  ही गिने चुने। देश के पहले प्रधानमंत्री से लेकर आज के प्रधानमंत्री तक किसी ने राजनीति से सन्यास लेने के बारे में कार्ययोजना बनाना तो दूर, कभी सोचा तक नहीं। इस मामले में हर विचारधारा के नेता एक जैसा सोचते है।  राजनीति में व्यक्ति जीवन पर्यन्त सक्रिय रहना चाहता है। कुर्सी के बिना जीवित रहना किसी भी नेता के लिए असम्भव काम है। भारतीय राजनीति में कोई सन्यास नहीं लेता लेकिन शारीरिक अस्वस्थता की वजह से उसे घर बैठना पड़े तो अलग बात है। मिसाल के तौर पर पूर्व प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी बाजपेयी। 

दुनिया में राजनीति ही एक मात्र ऐसा क्षेत्र है जहाँ  सन्यास का न कोई लिखित विधान है और न कोई विवादास्पद इतिहास। राजनीति में कोई औरंगजेब भी तो नहीं है जिसने कम से कम पचास साल शासन किया हो।हमारे सनातन में तो राजा- महाराजा  अपने जीते जी अपने उत्तराधिकारी की न सिर्फ घोषणा कर देते थे बल्कि उनका राज्याभिषेक भी करा देते थे। राजनीति में नेता अपना उत्तर्राधिकारी तो घोषत करते हैं लेकिन खुद सन्यास नहीं लेते। हमारी संसद और विधानसभाओं  में पिता-पुत्र ,पति-पत्नी,भाई-भाई साथ -साथ मिल जायेंगे। राजनीति  से नेताओं को सन्यास केवल मृत्यु ही दिलाती है। मुमकिन है कि मै गलत होऊं ,लेकिन मैंने तो अपनी स्मृति में अपवादों को छोड़ किसी को औपचारिक रूप से सन्यास लेते नहीं देखा। आपने देखा हो तो जरूर बताएं। 

मौजूदा राजनीति  में हमारे तमाम नेता  80  पार कर चुके हैं लेकिन राजनीति छोड़ने को तैयार नहीं हैं ,ये भी पता नहीं चल पता कि राजीति ने नेताओं को पकड़ रखा है या नेताओं ने राजनीति को ? अब कांग्रेस से ही शुरू कीजिये। कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे हो या ,श्रीमती सोनिया गाँधी सन्यास के बारे में कोई योजना अभी तक नहीं बना पायीं हैं। भाजपा में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी का भी राजनीति से सन्यास से कोई इरादा नहीं है।  एनसीपी  के शरद पंवार हर बार, आखरी बार कहते हैं और हर बार राजनीति से चिपके दिखाई देते हैं।  राजद के लालू प्रसाद जी ने अपनी पत्नी और बेटे -बेटियों को भी स्थापित कर दिया लेकिन सन्यास की घोषणा नहीं की।

 बहन मायावती तो किसी आश्रम में रहीं ही नहीं  इसलिए  उनके सन्यास  आश्रम में जाने का सवाल ही नहीं उठता। सन्यास की उम्र तो बहन ममता बनर्जी की भी हो गयी है लेकिन वे भी इस बारे में शायद सोच नहीं पायी हैं। नीतीश कुमार भी सन्यासी नहीं बनना चाहते। समाजवादियों में भी कोई सन्यासी हो तो आप बताइये ?  वाम पंथियों में एक ज्योति बासु अपवाद रहे,उन्होंने स्वास्थ्य कारणों से राजनीति से सन्यास लेकर बुद्धदेव भट्टाचार्य को अपना उत्तराधिकारी बना दिया था ,अन्यथा वामपंथी भी आजन्म नेता होते हैं  और मरते समय तक पोलित ब्यूरो सम्हालने का हौसला रखते हैं। 

मुझे लगता है कि राजनीति में सन्यास शब्द से चिढ़ने वाले ,सन्यास को फालतू की चीज मानने वालों की संख्या लगातार बढ़ रही है। किसी दल में कोई ऐसा नेता नहीं  है जो   स्मिथ  की तरह ,सचिन तेंदुलकर ,कपिल देव् की तरह अपने सक्रिय जीवन से सन्यास लेने की घोषणा कर अपने चाहने वालों को चौंकाए। अमेरिका में जो वाइडन साहब 80  पार कर भी सन्यासी नहीं बने ,वे तो ईसाई हैं ,उनके यहां शायद सन्यास की व्यवस्था नहीं है। वहां शायद रिटायरमेंट चलता हो लेकिन हम भारतियों की जीवन  शैली में सन्यास एक खास व्यवस्था है लेकिन हमारे नेता सन्यास के नाम से ही बिदक जाते हैं। आपको यकीन न हो तो अपने क्षेत्र के किसी विधायक,संसद,मंत्री या प्रधानमंत्री से राजनीति से सन्यास लेने के बारे में प्रश्न करके देख लीजिये ? हकीकत समझ जायेंगे। 

@ राकेश अचल

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