मै एक जमाने में दुर्दांत डकैतों के लिए बदनाम चंबल इलाके से आता हूँ । मैंने अपने पत्रकारिता के कार्यकाल में डाकुओं की जितनी कहानियां बनाई और बेचीं उतनी शायद मुंबई के डॉन की कहानियां भी नहीं बिकी होंगीं। चंबल के डाकू दो दशक पहले हमेशा -हमेशा के लिए समाप्त हो गये। लेकिन मुंबई के डॉन आज भी ज़िंदा हैं । मुंबई के डॉन और चंबल के डाकुओं में बहुत फर्क है । डाकू कभी किसी की हत्या के लिए सुपारी नहीं लेते थे,लेकिन डॉन सुपारी लेते भी हैं और देते भी हैं।
डाकू हों या डॉन मीडिया के लिए हमेशा ' हाट केक ' की तरह बिकने वाले कथानक रहे है। आजकल मुंबई में ही नहीं पूरे देश में डाकुओं से ज्यादा डॉन की चर्चा हैं । डॉन लारेंस विश्नोई द्वारा हाल ही में दिल्ली और मुंबई में सुपारी देकर कराई गयी हत्याओं के बाद सुर्ख़ियों में हैं। भ्रष्ट नेताओं से ज्यादा खूखार डॉन सुर्ख़ियों में है। विश्नोईयों के बारे में धारणा है कि वे न केवल पर्यावरण प्रेमी होते हैं बल्कि काले हिरणों के सबसे बड़े संरक्षक भी होते हैं ,लेकिन इस विश्नोई समाज से यदि लारेंस डॉन बनकर निकला है तो हैरानी होती है । पता नहीं लारेंस का राजस्थान के विश्नोई समाज से कोई वास्ता है भी या नहीं।
मैंने अपने पत्रकारिता के जीवन में देश के इस सदी के सबसे कुख्यात और ' रॉबिनहुड ' रहे डकैत देखे है। उनसे मिला हूँ । माधौ सिंह ,मोहर सिंह ,तहसीलदार सिंह, पान सिंह,निर्भय गूजर से लेकर फूलन देवी तक को मै खूब जानता था,लेकिन कोई इतना नृशंस नहीं था, जितना कि आजकल के डॉन हैं। डाकुओं ने हत्याएं कीं,अपहरण किये, गांव के गांव जलाये लेकिन उनकी करतूतों के पीछे की कहानियां कुछ और हुआ करतीं थीं। उनके मन में हिंसा के साथ दया-माया भी थी । वे रॉबिन हुड की तरह गरीबों की मदद भी करते थे और आततायियों को सबक भी सिखाते थे । डाकुओं ने कभी प्रदेश में बैठकर अपने गिरोह नहीं चलाये लेकिन मोदीकाल के डाकू अमेरिका में बैठकर अपने गिरोह चला रहे है। बीहड़ों के बजाय वातानुकूलित जेलों में रहकर गिरोह चला रहे है।
बात नए -नए डॉन लारेंस विश्नोई की हो रही थी । लारेंस विश्नोई हाल ही में एनसीपी [ अजित गुट ] के नेता बाबा सिद्दीकी की हत्या के बाद सुर्ख़ियों में है। उसके निशाने पर एक लोकप्रिय अभिनेता सलमान खान के अलावा अनेक खान हैं। ये महज संयोग है या कोई नियोजित अभियान की लारेंस और सत्तारूढ़ दल के लक्ष्य एक जैसे ही है। कभी -कभी लगता है कि लारेंस ने या तो संघ और भाजपा का एजेंडा चुरा लिया है या वो इन संगठनों और दलों का अंधभक्त बन गया है। दोनों के निशाने पर अल्पसंख्यक ज्यादा हैं ,दुसरे लोग भी हैं लेकिन अल्पसंख्यक सबसे ऊपर है। कहने को तो बाबा सिद्दीकी जैसे लोग संजय दत्त के भी खैरख्वाह थे।
दरअसल मै अपने नयी पीढ़ी के पाठकों को डॉन और डाकुओं में फर्क बताने की कोशिश कर रहा था । डाकू विषम परिस्थितियों में बीहड़ का रास्ता पकड़ते थे और डॉन सुनियोजित तरीके से मुंबई का रुख करते हैं। डॉन और डाकू पहले छोटी वारदात करते हैं ,बाद में किसी स्थापित गिरोह में शामिल होते हैं लेकिन बाद में अनुभव हासिल होते ही डॉन अपने स्वतंत्र गिरोह बना लेते हैं। जाति डॉन की भी होती है और डाकू की भी। हाजी मस्तान से लारेंस तक और मान सिंह से लेकर जगजीवन परिहार तक कहानियां एक जैसी हैं।दोनों कि जीवन पर फ़िल्में भी खूब बनतीं और चलतीं हैं। लेकिन डाकू दिलेर होते हैं और डॉन कायर। डाकू पुलिस से सीधे मुठभेड़ करते हुए मारे जाते हैं ,लेकिन डॉन कभी पुलिस से सीधे मोर्चा नहीं लेते । डाकुओं के गुर्गे नहीं होते लेकिन डॉन के होते हैं। डॉन विलासता का जीवन जीते हैं ,बड़े शहरों और बड़े देशों में रहते हैं किन्तु डाकू बीहड़ों में विषम परिस्थितयों में रहते हैं और उनके जीवन में विलासता भी बड़े ही निम्न स्तर को होती थी।
डॉन और डाकूओं में महिलाओं का प्रतिशत बहुत कम रहा है। गुजरात की लेडी डॉन की तरह एक जमाने में चंबल की महिला डाकू पुतली बाई एक किवदंती बन गयी थी। फूलन तो डाकू जीवन से मुक्त होकर संसद तक पहुंची। एक डाकू सरगना मलखान सिंह भी फूलन का अनुशरण करते हुए विधानसभा में पहुँचने के लिए बार-बार चुनाव लड़ा लेकिन कामयाब नहीं हुआ। डॉन भी किवदंती बने हैं ,लेकिन शायद ही कोई डॉन हो जो संसद तक पहुंचा हो,हालाँकि हाजी मस्तान ने डॉन बनने के बाद गाँधी टोपी पहनकर नेतागीरी की थी लारेंस को भविष्य में कोई हिंदूवादी पार्टी लोकसभा या विधानसभा चुनाव में टिकिट दे दे तो मै जानता नहीं। हाँ डाकुओं कि मंदिर हैं लेकिन डॉन कि नहीं।
लोकतंत्र के लिए डाकू और डॉन समान रुप से उपयोगी रहे है। मै ऐसे तमाम नेताओं को जानता हूँ जो एक जमाने में चुनावों के वक्त चंबल में डाकुओं के प्रभाव का ,आतंक का इस्तेमाल खुलेआम करते थे। चंबल की ये कहानी मै महाराष्ट्र ,गुजरात और देश के हर हिस्से में दुहराते हुए देख रहा हू। अब हर राज्य में कोई न कोई डॉन किसी न किसी नेता को चुनाव जितने के लिए अपने प्रभाव और आतंक का इस्तेमाल करता है। डॉन और डाकू आतंक के कारण ही समाज में ज़िंदा हैं। अब डॉन और डाकुओं ने अपनी वर्दी बदल ली है। वे खादी से लेकर 'हुडी' तक पहनने लगे हैं।
डाकुओं के समर्पण के लिए विनोबा भावे और जयप्रकाश नारायण से लेकर अर्जुन सिंह तक ने अथक प्रयास किये थे लेकिन डॉन को समाज की मुख्यधारा में लाने का काम किसी नेता ने किये हो तो मुझे मालूम नहीं। डॉन आज भी सुपारी ले और दे रहा है। हत्याएं करा रहा है। चौथ वसूली कर रहा है। डाकू ये सब छोड़ चुके हैं। वे या तो खेती कर रहे हैं या राजनीति या समाजसेवा। दुर्भाग्य कहूँ या सौभाग्य कि मुझे आजतक किसी डॉन से मिलने का सौभाग्य नहीं मिला,हालाँकि हमारे पूर्वज कहें या अग्रज स्वर्गीय वेद प्रताप वैदिक सीमा पर जाकर पाकिस्तान के डॉन हाफिज सईद से मिल आये थे। उनका और हाफिज जी का इंटरव्यू ठीक उसी तरह से सुर्खियां बना था जैसा की एक जमाने में फूलन और निर्भय के इंटरव्यू ।
बहरहाल डाकुओं की कहानी तो लगभग समाप्त हो चुकीहै किन्तु डॉन की फिल्म खत्म होने का नाम नहीं ले रही । डॉन की कहानी ने ' सीक्वल ' का रुप ले लिया है। एक जाता है तो दूसरा आ जाता है। ये तब तक चलेगा जब तक सियासत चाहेगी । जिस दिन सियासत और डॉन का रिश्ता दरकेगा डॉन की कहानी भी उसी तरह समाप्त हो जाएगी जैसे की डाकुओं की हुई है। डॉन ,डाकू और डाकिया तंत्र लोकतंत्र के लिए अभिशाप है। इनका खात्मा जितनी जल्द हो उतना अच्छा है। अन्यथा न मुंबई चैन से रह पायेगी और न दिल्ली।
@ राकेश अचल