एक जमाने में फिल्म ' मेरा नाम जोकर ' के लिए हसरत जयपुरी ने एक पहेलीनुमा गीत लिखा था ' तीतर के आगे दो तीतर ,तीतर के पीछे दो तीतर ,बोलो कितने तीतर ? ' आशा भोंसले ने इस गीत को गया था और शंकर जयकिशन ने इसे संगीतबद्ध किया था। ये बात 1970 की है। आज हम 2024 के आखरी सिरे पर आ गए हैं लेकिन भारतीय राजनीति में जोकरों के लिए तीतर के बजाय नारे पहेलियाँ बन गए है। ये समझना मुश्किल है की आखिर नारों के आगे,नारों के पीछे कितने नारे हैं और कितने जोकर है।
' मेरा नाम जोकर यदि आज बनाई जाती तो तय है की हसरत जयपुरी साहब को तीतर के आगे दो तीतर गीत के बोल बदलना पड़ते । वे लिखते-' नारे के आगे दो नारे, नारे के पीछे दो नारे,आगे नारे ,पीछे नारे ,बोलो कितने नारे ?निश्चित रूप से ये गीत भी लोकप्रिय होता,क्योंकि आज की राजनीति में नेताओं और मुद्दों से ज्यादा नारे लोकप्रिय हो रहे हैं ,समूची राजनीति इन्हीं नारों पर टिकी है। जिस दल के पास नारे नहीं ,उसके वारे-न्यारे नहीं। नारे बिना राजनीति आभूषणों बिना नारी जैसी है।
साल के जाते-जाते भारतीय राजनीति को जो सबसे ज्यादा चर्चित और हिंसक नारा मिला ,वो है - बंटोगे तो कटोगे '। इस नारे के जनक हैं उत्तरप्रदेश के उत्तरदायी मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ। उनका ये नारा बड़ा ही कटखना है। ये नारा सबसे ज्यादा पसंद आया राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ को। संघ ने इस नारे को अपनी दैनिक प्रार्थना-' नमस्ते सदा वतस्ले ' की तरह अंगीकार कर लिया। सबसे पहले संघ के दो नंबरी नेता दत्तात्रय होंसबोले ने इस नारे के आगे समर्पण किया। उन्हें शायद आत्मग्लानि हुयी की इतना मारक नारा उनकी नागपुर की फैक्ट्री में क्यों नहीं गढ़ा गया ? कहते हैं कि योगी के नारे कि गूँज कनाडा में सुनाई दे रही है । उनका नारा बंटोगे तो कटोगे अब वैवाहिक निमंत्रण पत्रों पर भी लिखवाया जाने लगा है।
योगी जी के इस इस नारे की नाव पर सवार होकर भाजपा हरियाणा और जम्मू-कश्मीर के विधानसभा चुनावों में उतरी । हरियाणा में तो इस नारे से भाजपा की नाव चुनावी वैतरणी पर कर गयी लेकिन जम्मो-कश्मीर में डूब गयी। जम्मू-कश्मीर में कुछ और चला। इस खंडित सूबे में न कोई कटा और न कोई बटा ,लिहाजा भाजपा के हाथ सत्ता नहीं लगी। लेकिन न भाजपा निराश हुयी और न माननीय योगी जी। भाजपा,संघ और योगी जी इसी नारे को लेकर महाराष्ट्र और झारखड विधानसभा के चुनाव में जा कूदे। लेकिन यहां योगी की के इस नारे को अंगीकार नहीं किया गया। भाजपा के सहयोगी एनसीपी के अजित पंवार ने ही इस नारे का विरोध कर दिया । उद्धव ठाकरे की शिव सेना भी इस नारे के खिलाफ मुखर हुई तो प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र दामोदर दास मोदी को दखल करना पड़ा।
माननीय मोदी जी तो राजनीती में नए नारों के जनक हैं,हालाँकि उनसे पहले श्रीमती इंदिरा गाँधी ' गरीबी हटाओ ' जैसे अति लोकप्रिय नारे लगा चुकी थी और जनता से लगवा चुकी थीं ,लेकिन न गरीब हटे और न गरीबी । उलटे आज देश में 85 करोड़ गरीब मोदी सरकार के हिस्से में है। सबको पांच किलो अन्न मुफ्त में देना पड़ रहा है । मोदी जी भी इंदिरा जी के बताये रस्ते पर चलकर न गरीबी का उन्मूलन कर रहे हैं और न गरीबों का । हालांकि उनका दावा रहता है की उनकी सरकार ने 10 साल में 25 करोड़ गरीबों को गरीबी की रेखा से बाहर निकाला है।
बहरहाल बात नारों की चल रही थ। योगी जी के नारे को महाराष्ट्र में लड़खड़ाता देख मोदी जी इसी नारे को नए पैकिंग में लेकर नमूदार हुए। उनका नारा है -' एक रहोगे तो सेफ रहोगे '। मोदी जी का नारा गांधीवादी नारा है या गोलवलकरवादी नारा अभी तक कम से कम मै तो तय नहीं कर पाया हूँ । महाराष्ट्र की जनता इस नारे से कितनी प्रभावित हुयी है ये भी कहना कठिन है। मोदी जी के इस नारे के जबाब में उद्धव ठाकरे की शिव सेना ने कहा कि महाराष्ट्र तभी तक सेफ है जब तक की यहां भाजपा सत्ता से बाहर रहेगी। झारखण्ड में भी कमोवेश मोदी जी और योगी जी का नारा कारगार होता नहीं दिखाई दे रहा। भविष्य में हो जाये तो मै इसकी गारंटी नहीं दे सकता या ले सकता।
योगी जी के नारे के जबाब में उत्तरप्रदेश के उत्तरदायी समाजवादियों ने एक नया नारा गढ़ा है। हर नारे का अपना व्याकरण है । अपनी धार है। अपना असर है। आज की सियासत में मुद्दे नहीं बल्कि नारे प्रधान होते हैं। बिना नारों के सियासत एक कदम आगे नहीं बढ़ सकती। जो राजनीतिक दल नया नारा नहीं गढ़ सकता उसे सत्ता भी आसानी से हासिल नहीं हो सकत। मेरा नाम जोकर ब्रांड राजनीति में जोकरों की और नारों की कोई कमी नहीं है । हर दल में जोकर है। हर दल के अपने नारे हैं। नारे लगाने वाले है। नारे लगवाने वाले हैं। यानि जिधर देखो उधर केवल नारे ही नारे नजर आते हैं ,सुनाई देते है। नेता और जनता मुद्दों को भूल नारों के भंवर जाल में फंस गयी है।
कभी-कभी मुझे लगता है कि इस देश को डिक्शनरी के एक और नए संस्करण की जरूरत है। इस डिक्शनरी में केवल और केवल ' नारे ही नारे समाहित किये जाएँ । पूरब से पश्चिम तक के नारे । कन्या कुमारी से कश्मीर तक के नारे । हिंदी नारे,पंजाबी नारे ,उड़िया नारे ,गुजराती नारे ,तमिल नारे ,मलयाली नारे ,तेलगू नारे ,मराठी नारे ,झारखंडी नारे। हर दल का एक नारा होना ही चाहिए। ' बिन नारा सब सून ' है भाई !नारा है तो सियासत है और सियासत है तो नारे हैं। नारों का भी वर्गीकरण किया जाना चाहिये । जैसे स्थानीय नारे,प्रांतीय नारे और राष्ट्रीय नारे। अंतर्राष्ट्रीय नारों की एक अलग श्रृंखला हो सकती है । जैसे पिछले दिनों अमेरिका में राष्ट्रपति चुनाव के दौरान तरह -तरह के नारे सुनने में आये थे ।
आजादी के बाद की पीढ़ी को पढ़ाया गया था कि भारत एक कृषि प्रधान देश है लेकिन 2014 के बाद मिली असली आजादी [ बकौल कंगना रनौत ]के बाद की पीढी को पढ़ाया जा हां है कि - भारत एक नारा प्रधान देश है। कृषि उत्पाद तो हम आयात भी कर सकते हैं लेकिन हमें नारे एकदम स्वदेशी चाहिए। आत्मनिर्भरता के लिए सब कुछ स्वदेशी होना चाहिए ,खास तौर पर सियासी नारे। इस देश को नारा आधारित राजनीति से कब मुक्ति मिलेगी ? ये मै तो नहीं बता सकता। कोई ज्योतिषी बता सके तो उसके मुंह में घी-शक़्कर। वैसे आपको याद होना चाहिए कि नारा हर युग में प्रभावी रहा है। आजादी के पहले महात्मा गाँधी की आंधी के समय ' करो या मरो ' के नारे ने जनता को एक किया था। अंग्रेजों को खदेड़ा था। ये शाकाहारी नारा था। अब देखना है कि योगी जी का नारा इस देश से मुसलमानों ,बांग्लादेशी,मयंमार के घुसपैठियों को खदेड़ पायेगा या नहीं ? जय श्रीराम ।
@ राकेश अचल